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शूरता और वीरता
शूरता है सभी परिस्थितियों में परम सत्य के लिए डटे रह सकना, विरोध में भी उसकी घोषणा करना और जब कभी आवश्यकता हो तो उसके लिए युद्ध करना ।
और हमेशा अपनी ऊंची-से-ऊंची चेतना के द्वारा काम करना ।
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शूरता :
१. हमेशा सबसे अधिक सुन्दर और सबसे अधिक उत्कृष्ट कार्य करना । २. हमेशा अपनी चेतना की ऊंचाई से कार्य करना ।
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शूरता भरा कार्य हमेशा बाधाओं और विरोधों के डर के बिना, सुन्दर और सच्चे के लिए लड़ता हे ।
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शूरता भरा विचार कठिनाई और अगम्यता से डरे बिना अज्ञात की विजय के लिए उठता हे ।
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केवल वही कभी पराजित नहीं होता जो पराजित होना अस्वीकार करता है ।
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हम भगवान् के वीर सौनक बनने की अभीप्सा करते हैं जिससे उनकी महिमा धरती पर प्रकट हो सके । ३० सितम्बर, १९५४ *
१८६ वीरता किसी से डरती नहीं और विरोधी के सामने डटे रहना जानती है ।
निर्भयता
निर्भयता : किसी भी कठिनाई से डरे बिना, निर्भय होकर जो किया जाना चाहिये वही करना ।
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मानसिक निर्भयता : अपने मन को आगामी कल की पूर्णता को देखने योग्य बनाओ ।
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प्राणिक निर्भयता को तर्क-बुद्धि के आगे समर्पण करना चाहिये ।
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भौतिक निर्भयता भगवान् के प्रति अपने निवेदन में असम्भव को नहीं जानती ।
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सहज निर्भयता : भगवान् पर पूरे विश्वास के परिणामों में से एक ।
साहस
साहस : निर्भय, वह समस्त संकटों का सामना करता है ।
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सर्वांगीण साहस : चाहे कोई क्षेत्र हो, चाहे जो संकट हो, मनोवृत्ति एक ही रहती है--स्थिर और आश्वस्त । *
१८७ साहस आत्मा के आभिजात्य का एक चिह्न है ।
लेकिन साहस को स्थिर, आत्म संयत, अपना स्वामी, उदार और शुभचिन्तक होना चाहिये ।
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सच्चे साहस में अधीरता, उतावलापन और दुःसाहस नहीं होता ।
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दुःसाहस को साहस और उदासीनता को धैर्य न समझ बैठो । ४ नवम्बर, १९५१
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लाभदायक होने के लिए प्राणिक साहस को नियन्त्रित होना चाहिये ।
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अपने दोषों को पहचानना श्रेष्ठतम साहस है ।
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अपनी भूलों को पहचानने से अधिक श्रेष्ठ कोई साहस नहीं है । १ मई, १९५४
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हमेशा सच्चे बने रहने से बढ़्कर कोई साहस नहीं है । ३१ जुलाई, १९५४
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भगवान् के साथ पूरी तरह स्पष्ट और सच्चे होने का साहस रखो ।
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जिस किसी में साहस है वह औरों को साहस दे सकता है जैसे दीये
१८८ की ज्योति दूसरे दीये को जला सकती है ।
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यह बहुत जरूरी है कि जिनमें साहस है उनमें उनके लिए अतिरिक्त साहस भी हो जो साहसविहीन हैं ।
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बहुधा भौतिक साहस और सहनशक्ति की अपेक्षा नैतिक साहस और सहनशक्ति को पाना कहीं अधिक कठिन होता है । २२ जुलाई, १९५५
बल, सामर्थ्य और शक्ति
सच्चा बल हमेशा शान्त होता है । ४ मई, १९५४
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वे सब जो सचमुच बलवान् और शक्तिशाली होते हैं, सदा बहुत स्थिर रहते हैं । केवल दुर्बल ही बेचैन होते हैं । सच्ची स्थिरता सदा सामर्थ्य का लक्षण है ।
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संपूर्ण नीरवता : सच्चे सामर्थ्य का उद्गम ।
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किसी बाहरी शक्ति का मूल्य केवल उसी अनुपात में होता है जिस अनुपात में वह 'सत्य' की शक्ति की अभिव्यक्ति हो । १६ जनवरी, १९५५ *
१८९
व्यक्तिगत शक्ति : अपनी क्षमता और क्रिया में सीमित ।
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प्रबुद्ध वैयक्तिक शक्ति : अपनी क्रिया में सीमित परन्तु बहुत अधिक क्षमतावाली ।
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मानसिकभावापन्न शक्ति : शक्ति जो उपयोग करने योग्य बन जाती है ।
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गतिशील शक्ति : प्रगति के लिए अनिवार्य ।
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